कहानी बहुत दिनों से चौराहे पर अटकी थी। मैंने फिर कहा गोविन्दजी से कि लगता है यह कहानी भी कनपुरिया हो गयी। अब आप ही बचाओ मियां इशरत को। गोविन्दजी के लेखन की तमाम खराबियों में एक यह भी है कि वे किसी भी कहानी के गमजदा अहसास को धकिया के खुशनुमा वादियों में ला पटकते है। सो यह कहानी कैसे बचती! तो पढिये कहानी का दूसरा भाग कहानीकार गोविन्द उपाध्याय की कलम से।
गतांक से आगे...
अली बमुश्किल उस औरत और थानेदार से निजात सके। इस सारे वाकयात़ में उनकी जेब में पड़े कुल जमा अड़तालिस रुपये भी कुर्बान हो गये। दुकान पहुँचते-पहुँचते अपने रोज के वक्त से आधे घंटे लेट थे। "या खुदा रहम कर", इशरत अली ने मन ही मन ऊपर वाले से दुआ की कि मालिक के बेटे से सामना न हो। लेकिन भला ऐसा कहां होना था, वह भी आज के दिन जब सुबह से वक्त खराब चल रहा था।
पर यह क्या! आज तो पूरे दुकान का ही मिजाज बदला हुआ था। "लो, मुंशी जी आ गये", कैश काउंटर पर बैठे छोकरे ने उन्हें आता देखकर उनका इस्तकबाल किया। मालिक के बेटे ने जैसे ही उनके आने की खबर सुनी, उसके तमतमाये चेहरे पर कई तरह की बुनावटें नमूदार हुयीं। आखिर में वह मुस्कराते हुये बोला,"क्यों अंकल, आज फिर लेट...."। इशरतअली को जनाब के तेवर में बदलाव नजर आया। शिकायत में तल्खी की जगह कुछ मोहब्बताना उलाहना था। वे कुछ पशोपेश में पड़ गये। कम्प्यूटर वाली लड़की का चेहरा खौफ़ज़दा सा था। हमेशा खिला-खिला सा रहने वाला चेहरा मुर्झाया था। मालिक के लड़के ने कहा, "अंकल, पापा अपने केबिन में आपका बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। जल्दी जाइये।"
इशरत अली मालिक के केबिन में घुसे तो देखा वहाँ बहीखातों का ढेर लगा था। इशरतअली को देखते ही मलिक के चेहरे पर रौनक आ गई, "आओ भाई अली, आओ। इस कम्बख्त कम्प्यूटर ने तो कहीं का भी नहीं छोड़ा हमें। आज ही गड़बड़ होना था साले कोऽऽऽ। आज ही सेल टैक्स की तारीख है। अब तुम्हीं देखो। सम्भालो अपना बही खाता और जून २००३ से दिसम्बर २००३ तक की समरी निकालो। इशरत अली को याद आया, दुकान के सेल्स टैक्स का कोई लफड़ा चल रहा था और आज उसकी तारीख थी। मुंशी अली अपना बहीखाता तुरतफुरत समेटकर बैठ गये। तीन-चार घंटे की मेहनत और तजुर्बे ने कमाल कर दिखाया। इशरत अली ने बही के कुछ पन्नों की फोटोकापी व उनकी समरी बनाकर मालिक के सुपुर्द की और राहत की साँस ली।
लड़की का मेकअप विहीन चेहरा निर्दोष सा लग रहा था। आँखों में लगा काजल आँखों की नमी के कारण फैल गया था। वह कोई कामकाजी लड़की नहीं इशरतअली को जानीपहचानी सी कोई घरेलू लड़की लग रही थी। लड़की मुस्कराई, "मुंशीजी, लगता है अब मेरा दाना-पानी यहाँ से उठ गया है। मैं तो आपका मजाक उड़ाती थी, लगता है उसी की सजा है यह। मालिक लोगों ने कम्प्यूटर तो खरीद लिया बैंक से लोन लेकर लेकिन 'बैकअप' के लिये कुछ नहीं किया। अब इसमें मेरा क्या कुसूर। मैंने कोई जानबूझकर तो...."। "ऐसा होने लगे तो कोई नौकरी ही नहीं कर पायेगा", मुंशीजी ने उसकी बात बीच ही में काट दी, "जब काम होगा तो गलतियाँ भी होंगीं। और जब गलतियाँ होंगी तो डाँट भी पड़ेगी। भला इन सब बातों का से कोई घबराता है! तू तो बहादुर बच्ची है। मालिक हैं, अपने फायदे के लिए रखा है। जब नुकसान होगा तो उन्हें डाँटने का हक बनता है। फिर तेरी तो यह पहली नौकरी है। जैसे-जैसे तेरा तजुर्बा बढ़ेगा, तू नौकरी करना सीख लेगी। फिर इस खराबी में तेरा क्या दोष? मशीन है खराब हो गई। इशरत अली की बातों से लड़की के चेहरे की रौनक वापस लौटने लगी।
समय रफ्ता-रफ्ता रेंगता रहा। दुकान पर काम का एक दिन और कम होने वाला था। इशरत अली की पेशानी पर पसीना फिर झिलमिलाने लगा। उनकी जेब सबेरे ही खाली हो गई थी। आठ किलोमीटर के पाँच रुपये तो चाहिये ही थे या फिर पैदल...हिम्मत नहीं थी इतनी दूर पैदल चलने की। यहां के किसी स्टाफ से पैसा मांगना वो अपनी तौहीन समझते थे और मालिकों ने बहुत दिन बाद हमदर्दी वाला रुख अख्तियार किया था। कहीं फिर से बिदक न जायें। कामरान को उन्होंने एक बार फिर कोसा,"इस नामुराद के कारण कभी-कभी बहुत फजीहत उठानी पड़ती है। पर उस मुस्टंडे के भेजे में कुछ आये तब न! क्रिकेट की दीवानगी में कम्बख्त ने सारी हदें पार कर दी हैं। उसकी अम्मी और नसीबन भी हमेशा उसी के पाले में खड़ी रहती हैं और पलक रेफरी के किरदार में दोनों टीमों के बीच सुलह कराने में। अगर कामरान भी कहीं कमाने-धमाने लगता तो घर में दो पैसों का इजाफा होता और कुछ राहत मिलती।"
अब टेम्पो में बारह सवारियों के बावजूद इशरत अली का दम नहीं घुट रहा था। मौसम भी सुबह के मुकाबले काफी खुशगवार लगता था। जेब में पड़े दो सौ रुपये भी उनके खुशनुमा अहसास में इजाफा कर रहे थे। मोहल्ले का नुक्कड़ आते ही इशरत अली टेम्पो से रुखसत हुये। जा पहुँचे जलेबी की दुकान पर। उन्हें याद आया कि अम्मी कई दिनों से जलेबी के लिये कह रहीं थीं। दुकानदार उनके पूरे कुनबे से वाकिफ था। "लाओ भाई कल्लन, फटाफट आधा किलो गरम जलेबियाँ तो तौल दो", इसरत अली ने हलवाई से कहा। "क्या मियाँ, सिर्फ आधा किलो! अरे इतनी बड़ी खुशी को आधा किलो जलेबी से ही मनाओगे?" कल्लन ने जर्दे से स्याह सारे दाँत निपोरे। इशरत अली चौंके, "क्या हो गया मियाँ? कौन सी ऐसी बात हो गई कि कुंतल भर जलेबी तौलाऊँ?" "वाह मियाँ! ऐसे बोल रहे हो गोया तुम्हें कुछ मालूम ही नहीं। अरे पूरे मोहल्ले में खबर है कि तुम्हारे लख्ते जिगर मियाँ कामरान सूबे की क्रिकेट टीम के लिये चुने गये हैं।" कल्लन ऐंठते हुये बोला। इशरत अली से कुछ बोलते न बना। क्या लड़के की दीवानगी रंग ले आई या फिर यह मुआ कल्लनवा ऐसे ही आँय-बाँय बक रहा है। वैसे भी इसकी यह दुकान किसी चंडूखाने से कम नहीं है। पर अगर जो यह कह रहा है वह सच है तो "खुदा का लाख-लाख शुक्र है"। घर की तरफ लपकते हुये मियां के पांवों में लगता है पंख उग आये थे।
8 टिप्पणियां:
बहुत खूब। देर आये दुरुस्त आये कि तर्ज पर कहानी ने जबरदस्त मोड़ लिया है। हमारे अहोभाग्य कि हम नौसिखियो को गोविंद जी जैसे सशक्त लेखको का , सईदन बी के रचयिता जैसे छुपे रूस्तमो का और अनूप भाई जैसे सशक्त आलोचका का सानिध्य प्राप्त है।
यहाँ तो एक से एक धुरंधर भाटवेकड़ बैठे हैं, आशियाना तो मजबूत होता दिखता है। अतुल भाई के कहने से हमने भी इस अंक का आधा
हिस्सा लिख लिया था। गोविंद जी अगर एक दिन और लेट हो जाते तो भैय्या सच कह रिया
हूँ, मैने तो आशियाना अच्छी तरह दरका दिया था। अब कहानी का ये यू-टर्न पहले अंक के टाईटिल को थोड़ा अटपटा करता दिखता है, ये मुझ जैसे नौसिखिया का मानना है, आप लोगों का क्या कहना है।
एक बात और कहनी है, अतुल भाई ने कहानी की शुरूआत मे इशरत अली को प्राईवेट फर्म में मुनीमगीरी करते हुए बताया है, लेकिन उसके बाद दुकान में काम करते हुए ही कहानी आगे बढ़ी है।
तो भईया देर किस बात की। फाईनल किस्त आप ही करिए। अब यह आपके ऊपर है कि आशियाना दरके या महफूज रहे।
अनूप भाई साहब
माननीय गोविंद जी की दो दो कहानियो में हिस्सेदारी हो चुकी है। उनकी कलम हम जैसो को बहुत कुछ सिखा सकती है तो फिर उनका ब्लाग शुरू करवा डालिए। हमे यकीन है कि उनके रोजान छींकने मात्र से बाकी सबको जुकाम जरूर होगा।
अतुल भाई, गोविंद जी की सशक्त लेखनी के बाद मुझ जैसे नोसिखिया से लिखवा के काहे को कहानी का तिया-पाँच करवाना चाहते हो। अगली कहानी की शुरूवात जरूर कर सकता हूँ।
गोविंदजी अब धीरे-धीरे लिखने के मूड में आ रहे हैं। शायद जल्द ही कुछ और लिखें। ये कहानी तो अब भी खुली है। अभी मियां इशरत घर नहीं गये हैं। घर पहुँचने पर क्या कुछ देखते हैं वो लिखा जा सकताहै। तरुण भाई, कहानी का दूसरा भाग जो लिखा था वो न हो अपने ब्लाग में डाल दो। देखें आपने क्या मोड़ दिया था। कहानी अभी पूरी की जानी चाहिये। सुन रहे हो 'मियां खाकसार', जीतेन्दर चौधरी!
भई वाह!
मजा आ गया, गोबिन्द जी का लिखा एक एक शब्द कई कई बार पढा, फिर भी मन नही भरा,
दरअसल मै, बहुत दिनो बाद "बुनो कहानी" की साइट पर आया, वो भी तरूण की साइट पर कहानी पढकर. मेरे पास भी कहानी के दो प्लाट थे, एक निराशावादी और एक आशावादी, निराशावादी प्लाट मेरे को ज्यादा जँच रहा था, लेकिन गोबिन्द जी की कहानी पढने के बाद तो अब लगता है आशावादी प्लाट पर काम करना बहुत मुफीद रहेगा.
एक बात और, फुरसतिया जी, आपकी ये बात खराब है, हर बात कहानी लिखने मे कन्नी काट जाते है, अब इस कहानी की तीसरी किस्त आप लिखेंगे. और हाँ....तरूण की कहानी को भी बुनो कहानी मे जगह दी जानी चाहिये....साथ मे थोड़ा सा सारांश लिखकर कि, एक ब्लागर ने कहानी को अलग टच दिया था. मेरे विचार से आज से बीस साल बाद, हमारी "बुनो कहानी", हिन्दी साहित्य के छात्रों के बीच शोध का विषय हो सकता है.
अनूप भाई, हर कहानी के समाप्त होने पर अक्षरग्राम मे कहानी की आलोचना/पुनरावलोक भी छपनी चाहिये, चाहो तो निरन्तर पर छापो, या चाहो तो अक्षरग्राम पर, और इसके लिये सबसे सही आलोचक तो आप ही है.
अगर कहानी निरंतर छपने से एक दो हफ्ते पहले पूरी हो तो उसकी समीक्षा चिठ्ठा चर्चा वाले स्तंभ मे हो सकती है।
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