रविवार, जनवरी 30, 2005

मृत्युंजय : अध्याय १ : कल किसने देखा!

Mrityunjay"मृत्युंजय..हहह..मृत्युंजय..मौत पर विजय पा लेने वाला..", वह फिर बुदबुदाने लगा। सिगरेट के लंबे कश भरते हुए उसके होंठ थरथरा रहे थे, कोहनी कुर्सी के हत्थे पर टिकी थी फिर भी अंगुलियों में कंपन रुकती न थी। मृत्युंजय परेशान था। ऐसा नहीं था कि पहले कभी वह टेंस न हुआ हो पर इस बार यह कुछ अप्रत्याशित सा था। बार-बार मुद्रा बदल कर कुर्सी रिवॉल्व करते हुए वो कोशिश करने लगा कि परेशानी कुछ कम हो पर घूमती कुर्सी के हर चक्कर के साथ वह अवसाद के घेरे में और गहरा उतरता जाता था। मृत्युंजय ने अधजली सिगरेट एशट्रे में रख कर दोनों हाथों के बीच में अपना सर रख लिया। उसकी नज़रें बरबस ही टेबल पर लैपटॉप के पास रखे कागज़ के पुलिंदे पर चली जातीं। लैपटॉप हाईबरनेट मोड में चला गया था, मृत्युंजय को सहसा ही सांस लेने कि लिए कमरे की हवा नाकाफ़ी लगने लगी। घबड़ाहट में वह उठकर खिड़की तक गया और काँच सरका लिए। टाई की गाँठ ढीली कर वह गहरी साँस भरने लगा। स्याह आकाश मृत्युंजय की तरह ही अवाक था, दूर तलक कोई तारा टिमटिमाता न था, शुन्य को निहारते मृत्युंजय को बीते दिनों के घटनाक्रम पर मानों यकीन ही नहीं हो पा रहा था।

३ सप्ताह पहले कि ही तो बात थी। अपने जिगरी दोस्त अमर के साथ मृत्युंजय एबीसी फॉर्म्स के जैज़ गार्डन में बैठा बीयर की चुस्कियाँ लेते हुए फिर वही पुरानी बहस में उलझ पड़ा था। दोनों ही व्यावहारिक इंसान थे पर अमर के उलट मृत्युंजय था नितांत नास्तिक। मृत्युंजय के लिए जीवन रसायनों कि अभिक्रिया से ज्यादा कुछ न था, परिहास के स्वर के साथ वह अमर को कहता, "अमां इस में कॉम्प्लीकेटेड क्या है यार? लाईफ इज़ अ शीयर मार्वल आफ केमिकल्स, अणुओं के संगम से जीवन कि सृष्टि हुई, उपयुक्त वातावरण में रसायन आपस में जा मिले, कैटेलिस्ट शुमार हो गए और जीवन चक्र चल पड़ा। क्या बॉयलॉजी पढ़ी यार तूने! डार्विन का सिद्धांत भूल गया क्या? इन सब में भगवान नाम की वस्तु कहाँ से आ टपकी, हममम? "

"अबे हिपोक्रिट! इतना अविश्वासी है तो हाथ में यह बजरंगबली के चित्र वाली अंगूठी क्यों पहनता है, बोल? "

"तू जानता है कि मैं यह सिर्फ माँ की भावनाओं का सम्मान रखने के लिए करता हूँ। यूँ तो उनको मंदिर भी भी ले जाता हूँ, मत्था भी टेकता हूँ पर ईमानदारी से कहुँ तो मन में श्रद्धा नहीं उमड़ती। दिमाग शिकायत करता है कि अगर कोई सर्वज्ञ, कोई सर्वशक्तिमान, कोई ईश्वर मौजूद है, जो सृजनकर्ता है इस ब्रह्मान्ड का, तो फिर दुनिया में इतना अनाचार, इतनी असमानता और दुख क्योंकर काबिज़ है भला? तू कहता है न की दुनिया में घट रही है हर घटना भगवान की रची है तो मैं कहुँगा कि तेरा भगवान एक कमज़ोर लेखक है, क्योंकि उसकी लिखी कहानी में कई झोल हैं, गर तेरा ईश्वर वो राजा है जो दुनिया कि सत्ता चलाता है तो निश्चित ही उसके राज में यह दुनिया अंधेर नगरी बन चुकी है।"

"छोड़ यार, दिस इज़ अ नेवर एंडिंग डीबेट, पर तू कुछ और मान न मान, यह तो स्वीकारेगा कि कोई अद्श्य शक्ति है जिसके हाथ में संसार की डोर है, जिसने इंसानों की कहानी में दिल, ईमान और भावनाओं के रस डाले वरना तेरे डार्विन के कहे अनुसार तो दुनिया मशीनों कि तरह बस जुटी रहती, 'लिव एंड मल्टीप्लाई' के सिद्धांत को चरितार्थ करने में!"

चौथी बीयर के बाद मृत्युंजय अमर को बताना चाहता था कि कैसे अल्कोहोल के इंटॉक्सीकेटिंग एजेंट दिमाग में सुरूर का आवेग पैदा करते हैं, इसमें भगवान की भला क्या भूमिका है उसके मन ने प्रश्न किया, पर चुप रह गया। अमर भी जानता था कि मृत्युंजय कि गुस्ताख बातों का माकूल जवाब देना टेड़ी खीर है।

दूसरे दिन शाम को दोनों ने रूख किया अप्पा बलवंत चौक का। हर दूसरे तीसरे महीने यहाँ जाकर दोनों सैकंड हैन्ड किताबों की खाक छाना करते थे, नॉवेल, पुराना साहित्य जो भी हीरा हाथ लग जाय। अपने जाने पहचाने ग्राहक देख कर किताबवाले कि बाँछे खिल उठीं। पुरानी किताबों में से नायाब चीज निकालने में अमर का कोई सानी नहीं रकता था। भूसे के ढेर की तरह बेतरतीब बिखरी किताबों के ढेर से काम की किताब खंगाल लेने का हुनर था उसमें। अमर की पारखी नज़र जल्द ही कोने में पड़ी एक किताब की भड़कीली जिल्द से जा टकरायी। बाहर निकलवा कर देखा, नीली मखमली जिल्द जगह जगह से उखड़ रही थी, उपर करीने से सुनहरे अक्षरों में लिखा था, "अ लेमैन्स गाईड टू एंशियेन्ट स्क्रिपचर्स, हिंदू सीक्रेट आफ लाईफ एंड डेथ रीवील्ड"। किसी अंग्रेज़ की लिखी किताब थी, ज्यादातर पन्ने वक्त की मार से पीले पड़ चुके थे। किताबवाले और अमर दोनों ने ही किताब का महत्व मानो ताड़ लिया था, बड़े मोल-भाव के बाद कीमत तय हुई। वापसी में मृत्युंजय ने अंदाज़ा लगाया कि पिछली दफा के मुकाबले इस बार खरीददारी काफी कम हई, तिस पर अमर की थैली में सिर्फ एक अदद किताब ही दिखती थी, नीले जिल्द वाली वही किताब।

सोमवार सुबह मृत्युंजय के मोबाईल पर अमर की आवाज की उत्कंठा छुपाये न छुपती थी। उसने मृत्युंजय से अगली शाम को मिलने की बात कही। कहा कि कुछ जरूरी बात बतानी है। वैसे दोनों अक्सर सप्ताहांत पर ही मिल पाते थे इसलिए मृत्युंजय को थोड़ी हैरत हुई, कुछ सोच कर उसने हामी भर दी। रात को अमर का फोन फिर आया, दफ्तर से उसे आनसाईट भेजने का हफ्तों से टल रहा कार्यक्रम सहसा ही तय हो गया था, बुधवार अमेरिका जाना था। माफी मांगते हुए अमर ने कहा, "यार कल मिलना तो मुश्किल है, देखो वहाँ कितने दिन रुकना पड़ता है, ३-४ महीने तो लग ही जायें शायद"। "तो क्या यही वह ज़रूरी बात थी", मृत्युंजय ने पुछा। "अरे नहीं यार, वो तो उस नीली किताब के बारे में कुछ कहना था", अमर की आवाज़ में रौनक लौट आयी थी, "बता नहीं सकता क्या खज़ाना हाथ लगा है। बस समझ ले कि एकाध हफ्ते में मैं भविष्यवक्ता बन जाने वाला हूँ। अभी पूरा पढ़ नहीं पाया हूँ, इसलिए किताब साथ ही लिए जा रहा हूँ। वहाँ से डीटेल में ईमेल करता हूँ।" मृत्युंजय को पूरी बात समझ नहीं आयी, अभी वह तर्क के मूड में नहीं था सो बात वहीं आई गई हो गई।

अगले हफ्ते जब अमर का फोन फिर आया तो उसे भान हुआ कि अमर तो अमेरिका पहुँच चुका था। इस दफा छुट्टी पर भी काम करना पड़ा तो सप्ताहांत का पता ही न चल पाया था मृत्युंजय को। अमर की आवाज उसी उत्साह से लबरेज़ थी, यूँ लगता था जैसे उसे अलीबाबा कि तरह गुफा में बंद खजाने का पता मिल गया हो। "ड्यूड, आई एम हाफवे थ्रू द बुक, इट्स अ जेम, पुराने भारतीय ग्रंथों के हवाले से इस किताब में बतलाया गया है कि भविष्य कि घटनाओं का कैसे गणितीय पूर्वानुमान लगा जा सके। सुन, मैं तो अपने नोट्स भी बना रहा हूँ, तुझे अगले हफ्ते फोटोकॉपी भेजता हूँ।" सुनकर मृत्युंजय फिर उखड़ गया, "यार तू नहीं सुधरेगा, भविष्य का पता लगा लेना बच्चों का खेल है क्या? ये बता कि कितने ज्योतिषी पूर्वानुमान लगा पाये थे त्सुनामी की त्रासदी का? अगर जिन्दगी तेरे ईश्वर कि लेखनी से पहले ही रची जा चुकी है तो हैरत कि बात है कि उसकी 'कंट्रोल्ड कॉपी' सिर्फ इन ज्योतिषियों और तेरे उस फिरंग लेखक को ही सर्कूलेट की गई।" "मेरे भाई, मैं तो यह मानता हूँ कि दुनिया में ऐसा बहुत कुछ है जिसके विषय में मानव को अभी जानकारी नहीं है।", अमर समझाकर बोला, "हमारे अन्वेषण का दायरा वहीं तक सीमित है जितना दिये की लौ में हमारी आँखें देख पाती हैं, पर दिये के तले जो अंधेरा बरपा है, उसका क्या? क्या अंधकार का कोई अस्तित्व नहीं? जो स्पष्ट दिखता न हो क्या हम उसका वजूद न होना भी मान लें? ज्योतिष और इस तरह की किताबें एक ज़रिया भर है ईश्वर की रची इन पहेलियों को बूझने का, बस!"

इस बीच एक हफ्ता और गुज़र गया। रविवार की अलसुबह फोन की घंटी सुनकर मृत्युंजय सकपकाकर उठ बैठा। फोन अमर के पिता का था, मृत्युंजय को खटका सा हुआ। रूधें गले से उन्होंने बताया कि अमर का एक दिन पहले अमेरिका में एक सड़क दुर्घटना में देहान्त हो गया था। खबर सुनकर मृत्युंजय सन्न रह गया, जवाब में कुछ कहते भी न बना। उसे यकीन ही नहीं हो पा रहा था। परसों ही तो ईमेल आया था अमर का।

आज अमर की अंत्येष्टी से वापस आया तो डी.एच.एल से मृत्युंजय के नाम एक लिफाफा आया था। चौंकना वाजिब था, भेजने वाले की जगह अमर का नाम लिखा था। तभी उसे याद आया कि अमर उसे नीली किताब के बारे में कुछ भेजने वाला था। हड़बड़ी में लिफाफा खोल कर मृत्युंजय ने कागजों का एक पुलिंदा बाहर निकाला। २०-२५ पृष्ठों पर हाथ से लिखे नोट्स की छायाप्रति थी। बिंदुवार तरीके से अमर ने किताब के पहलुओं को मोटे तौर पर समझाया था। विभिन्न फार्मूले के जरिए किसी भी व्यक्ति के जीवनकाल की घणना करने की विधियाँ दी गईं थीं। मृत्युंजय इन्हें दरकिनार कर पुलिंदा अलग रखने ही वाला था कि सहसा उसकी नज़र अंतिम ४ पृष्ठों पर पड़ी। इन पर १० दिन पहले की तारीख पड़ी थी। मृत्युंजय अवाक रह गया, अमर ने किताब के आधार पर अपने और उसकी मृत्युतिथि कि गणना की थी। अमर की मौत कि तारीख पढ़ कर वह सकपका गया। ठंड के बावजूद माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा आई। मृत्युंजय के सूखते कंठ ने उसे पानी पीने पर मजबूर कर दिया। अमर की मौत वाकई २४ जनवरी को हुई थी, ठीक उसी तारीख को जिस का अमर ने पूर्वानुमान लगाया था।

पुलिंदा टेबल पर छोड़ मृत्युंजय कमरे में तेज़ चहलकदमी करने लगा। शेष दो पृष्ठ देखने का उसमें साहस नहीं उपज रहा था। अपना लैपटॉप आन करके वह काम के बहाने अपना ध्यान भंग करने का प्रयास करने लग पर नजरें बरबस ही अमर के भेजे पुलिंदे की तरफ चलीं जातीं। १५ मिनट बाद मृत्युंजय ने हिम्मत बटोरकर पुलिंदा फिर उठा लिया, सिर्फ अंतिम पेज को उठाकर उसने देखना चाहा। अमर ने एक गोला बनाकर लिखा था, "संभावित मृत्यु तिथि - ४ मई २००५, साथ ही लाल स्याही से अमर ने एक टिप्पणी लिखी थी, "दिस इज़ अबसर्ड यार! इस किताब के मुताबिक तो हम दोनों इसी साल अल्लाह को प्यारे हो जाने वाले हैं??? अपनी तो अभी शादी भी नहीं हुई! डोंट टेक इट सिरीयसली मैन, मुझे मालुम है कि चार दिन बाद मुझे कुछ नहीं होने वाला। लगता है मैं भी तेरी तरह इन चीजों से विश्वास खोने वाला हूँ। ये किताब तो गई कूड़ेदान में!"

मृत्युंजय ने लैपटॉप के सिस्टम कलॉक पर कर्सर रखा, तारीख थी ३० जनवरी।

फोन के रिंगटोन से मृत्युंजय कि तंद्रा भंग हुई, खुली खिड़की से आती ठंडी हवा से उसे कंपकंपी सी होने लगी थी। शीशे चढ़ा कर मृत्युंजय फोन उठाने के लिए आगे बढ़ा।


[अगला अध्याय: लेखक ~ रविशंकर श्रीवास्तव]

4 टिप्‍पणियां:

Jitendra Chaudhary ने कहा…

बहुत सुन्दर, कहानी पढकर सिहरन सी उठती है.
जिस मोड़ पर आपने कहानी को छोड़ा है, काफी इन्टरस्टिंग है.
आपकी कहानी पढकर तो अब मुझमे हीन भावना आने लगी है.
कहाँ एक से एक धाकड़ लेखक और कहाँ मै निरीह सा नया बन्दा.
मै कहाँ फंस गया यार?

Atul Arora ने कहा…

कोई हाल मस्त कोई चाल मस्त
कोई खाके रोटी दाल मस्त
सब मस्त हैं अपनी मस्ती में
ब्लागरो की बस्ती में
कोई प्रेम रस बहाता है
तो कोई कहानी में झटके लगाता है
कोई स्थापित लेखक ही पकड़ लाता है
तो कोई खुद ही लेखनी का जादू चलाता है
देवाशीष जी की जयजयकार है
क्या भयंकर शुरूआत है
वे तो खुली चुनौती दे रहें हैं
जीतू भैया ऊपर से तो त्रस्त दिख रहें हैं
पर कुवैत में जंग लगी कलम पर सान चढा रहे हैं
रमण भैया और पंकज बाबू क्या सिर खुजा रहे हैं?
रविशंकर जी मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं
आलोक जी आप क्यों नहीं अपना भी जलवा दिखा रहे हैं?
हमारी दुआ है यह काफिला यू हीं चलता रहे
बुनकर मंडली का जलवा ऐसे ही फैलता रहे|

शैल ने कहा…

देबाशीष, शुरूआत तो जबर्दस्त है.और आपने नाम भी चुनकर रखे हैं॑ अमर और मृत्युन्जय. अब अमर तो मर गये हैं, आगे देखते हैं कि मृत्युन्जय का क्या होता है.अगर कोई "क्यूंकि सास....." की तरह अमर को जिंदा न कर दे तो बात अलग है.

deepa joshi ने कहा…

debashish ji...aapki mritunjay kahani shuru toh isliye ki thi chalo dekhe kis tarah se aap logo ne milkar ek kahani ko roop diya tha..lekin pratham adhyay ne hi nishabd kar diya...i m impressed...

hope aapki team mai rehkar bahut kuch learn karne ko milega...

regards