शुक्रवार, दिसंबर 31, 2004

मरीचिका: अध्याय 1: यादें

नोटः इस कहानी के सारे पात्र काल्पनिक है, यदि किसी पात्र में आपको अपना या किसी परिचित का चेहरा दिखे, तो अपनी चप्पल उठाकर मारने मत चले आना, फेंकी हुई चप्पलें सादर वापस प्रेषित कर दी जायेंगी.

रविवार की छुट्टी और सुबह उठते ही छाया रवि को चाय के कप से साथ सामानों की लिस्ट थमा कर बोली, "जरूरी सामान है, अभी लाने हैं, सो चाय पीकर तुरन्त निकलो...वरना सुपर मार्केट में भीड़ हो जायेगी"। आज रवि को छुट्टी के दिन सुपर मार्केट जाना बड़ा खल रहा था, टीवी पर भारत और पाकिस्तान का क्रिकेट मैच जो आना था। पहले पहल तो रवि ने साफ मना कर दिया, छाया का पारा और हाइ होने लगा और रवि बेफिक्र होकर अपने ८ साल के बेटे मनन के साथ बैठकर टीवी पर मैच देखने लगा। मैच अभी शुरु ही होने वाला था, छाया ने फिर कहा, "अगर सामान नही आयेगा तो ब्रेकफास्ट भी नही मिलेगा, ये सोच लेना। ब्रेकफास्ट करना है तो सामान तुरंत जाकर ले आओ वरना अपना ब्रेकफास्ट आप ही बनाते रहना, मैं तो चली बाजार"। गुस्से में छाया ने कार की चाभी भी उठा ली थी। अब जब छाया ने खुद बाजार जाने की धमकी दी तब रवि को अपने मैच की इच्छा को दरकिनार कर चाय पीकर मजबूरन सुपर मार्केट की ओर रूख करना ही पड़ा।

किसी तरह से पार्किंग में जगह ढूंढ ढांढ कर, गाड़ी लगाकर, रवि ने मेन एन्टरेन्स से प्रवेश किया। सहसा उसकी नज़र दूसरी तरफ के एक्जिट की तरफ पड़ी। एक खूबसूरत महिला अपने सामान की ट्राली लेकर बाहर निकल रही थी, उम्र होगी यही कोई तीस बत्तीस साल, लेकिन चेहरे और व्यक्तित्व से कहीं से भी वो पच्चीस बरस से ज्यादा की नही दिख रही थी। हल्के गुलाबी रंग की साड़ी, माथे पर बिन्दी, खुले लहराते बाल...फिरंगी औरतों के बीच वह एकदम अलग दिख रही थी, जैसे कोई खिलता हुआ कमल। महिला अपनी धुन में चली जा रही थी, रवि की नजर जाने अनजाने ही उसके चेहरे की तरफ गयी, वो चौंक पड़ा, चेहरा बड़ा जाना पहचाना सा था, रवि को ख्याल आया कहीं....कहीं यह विभा तो नही.....विभा? ये कैसे हो सकता है....वो यहाँ कैसे?....नहीं नहीं ये विभा नही हो सकती.....वो तो........।

रवि पुरानी यादों में खो गया, उसकी आंखो के सामने विभा का चेहरा घूमने लगा...वो खिलखिलाता हुआ चेहरा, वो झील सी गहरी आंखे, सुराहीदार गर्दन, आंखों में शरारत, होंठ जैसे अभी मुस्करा देंगे। रवि पुरानी यादो की वादियों में कहीं खो सा गया, लेकिन सहसा ही उसे ये आभास हुआ कि वो सुपर मार्केट में है। विभा जैसी दिखने वाली युवती मार्केट से बाहर निकल चुकी थी, बाहर निकलने के लिये रवि को भी काफी आगे जाना पड़ा, रविवार होने के कारण काफी रश भी था। जल्दी जल्दी बाहर निकल कर रवि की आंखे विभा को ढूंढने लगी....सारी पार्किंग टटोह ली पर कहीं भी वो नही दिखी.....रवि भारी मन से पुनः मेन एन्टरेन्स की तरफ बढने लगा। अचानक एक गाड़ी उसके सामने से गुजरी जिसमें कोई पुरूष गाड़ी चला रहा था और वह युवती, जिसे रवि विभा समझ रहा था, साथ में बैठी थी। रवि को फिर उसकी एक झलक दिखायी दी, हाँ वो विभा ही थी, वही चेहरा, वही नैन नक्श, वही नाक, वही बाल, वही हंसी, खिलखिलाने का वही अन्दाज़। अब रवि को विश्वास हो चला था। इतने सालों में भी विभा बिल्कुल नही बदली थी...वही मनमोहक छवि। लेकिन विभा यहाँ अमरीका में, ऐसा कैसे हो सकता है, विभा को तो हिन्दुस्तान बहुत प्यारा था और उसे वह किसी भी कीमत पर छोड़ना नही चाहती थी। रवि को सारी पुरानी बातें याद आने लगी, एक चलचित्र की मानिन्द वो पुराने दिन उसकी आंखो के सामने से गुज़रने लगे। वो पुराने दिन, जिन्हें याद करने पर दर्द मिलता है...सिर्फ दर्द।

इतने सालों बाद विभा की एक झलक रवि के दिल के तारों को पूरी तरह से झंझोड़ गयी, उसके दिल में भावनाओं के जैसे ज्वार आ गया था।
रवि अपनी वैवाहिक जिन्दगी से खुश था। उसकी पत्नी छाया, जिससे वह अमरीका में आने के बाद ही मिला था, दोनों साथ साथ काम करते थे। दोनों ने काफी सोच विचार के बाद शादी का फैसला किया था। छाया अमरीका में ही पली बढी थी, लिहाजा विचार काफी उदारवादी थे। वह शादी को कोई बन्धन ना मानकर दोस्ती का एक इकरारनामा मानती थी। रवि की शादी को लगभग दस साल होने को आये लेकिन दोनों के बीच का रिश्ता पति पत्नी के संबंधों से कहीं बढकर था, वे एक दूसरे के लिये सच्चे दोस्त जैसे थे और एक दूसरे से बेहद प्यार भी करते थे। मनन, जो अमरीका में ही पैदा हुआ और अमरीकियों की तरह ही दिखता था, के आने के बाद दोनों के रिश्ते जैसे सिमेंट से बँध गए। लेकिन विभा...उसे रवि कभी भी नही भुला सका...इतने सालों बाद विभा की एक झलक रवि के दिल के तारों को पूरी तरह से झंझोड़ गयी, उसके दिल में भावनाओं के जैसे ज्वार आ गया था। समय जैसे थम सा गया था...रवि का मन अतीत के पलों को पुनः जीवित करने लगा।

विभा और रवि बचपन के साथी होने के साथ साथ, कालेज में सहपाठी भी थे। दोनों एक ही मोहल्ले में रहते थे। रवि अपने परिवार का एकलौता बेटा था और बहुत ही नाजो नखरों में पला बढा था, लेकिन फिर भी वह अपने पिताजी और माताजी का आज्ञाकारी बेटा था। रवि के पिताजी का अच्छा खासा चलता व्यवसाय था, अनेक सामाजिक संस्थाओ के वे संरक्षक थे, समाज में बहुत रूतबा था। रवि इतने ऐशो आराम में पलने के बावजूद भी नही बिगड़ा तो यह उसके माता पिता का दिये हुए संस्कार ही थे...वरना आजकल ऐसे बच्चे कहाँ मिलते है। विभा अपने घर में सबसे बड़ी थी, उसके बाद उसकी छोटी बहन और एक छोटा भाई था।

विभा के पिता किसी सरकारी आफिस में मुलाजिम थे, रूतबे और हैसियत में रवि के परिवार के सामने कहीं भी नही ठहरते थे। लेकिन उनके परिवार का मोहल्ले में बहुत मान सम्मान था, विभा के बाबूजी की विनम्रता के सभी कायल थे। विभा और प्रतिभा, दोनों बहनों को कभी भी किसी ने घर के बाहर नही देखा था, जहाँ भी जाती अपने परिवार के साथ ही। विभा की माताजी बहुत धर्म कर्म वाली थी और सामाजिक रूप से काफी सक्रिय थी। दोनों परिवारों का एक दूसरे के घरों में काफी आना जाना था, रूतबा और हैसियत कभी भी दोनों परिवारों के रिश्तो के बीच में नही आयी। चाहे होली हो या दिवाली, या फिर कोई और त्योहार, दोनों परिवार साथ मिलकर ही मनाते थे। विभा के बाबूजी रवि को अपने बेटे जैसा मानते थे। इधर विभा को भी लगभग वही दर्जा रवि के घर में मिला हुआ था। जब कभी भी रवि की माँ बीमार पड़ती या फिर काम ज्यादा हो जाता, विभा, प्रतिभा या उसकी मां तुरन्त काम में हाथ बँटाने आ जाती।

जैसे जैसे रवि और विभा बड़े होने लगे, घरवालोंं को दोनों के भविष्य के कि चिंता सताने लगी, रवि की घरवालों ने तो विभा को अपनी बहू के रूप में सोच रखा था, लगभग यही सोच विभा के घरवालोंं की थी। घरवालोंं की बातो से अनजान रवि और विभा अच्छे दोस्तो की तरह रहते और अपने खुशी और गम साथ साथ बाँटते...ना रवि और ना ही कभी विभा ने एक दूसरे के बारे में सीरियसली सोचा था। लेकिन दिल के किसी कोने में दोनों को एक दूसरे के प्रति चाहत जरूर थी। यह बात दोनों जानते भी थे, लेकिन दोनों ही चाहते थे कि पहल दूसरी तरफ से हो। इधर विभा ने अपनी पढाई पूरी कर ली, पूरी यूनीवर्सिटी में टॉप किया था उसने, रवि भी अच्छे दर्जे से पास हुआ था। अब सवाल था कैरियर का। रवि के पिताजी ने फैसला किया था कि रवि को अपने व्यवसाय में शामिल करेंगे, जो रवि को कतई पसन्द नही था। उसकी इच्छा तो नौकरी करने की थी। वैसे भी रवि ने कई कम्पनियों में अर्जी दे रखी थी। उधर विभा के ऊपर भी घर की जिम्मेंदारियां आ रही थी, घर के खर्चे बढ रहे थे, बाबूजी पर कितना भार देती, वैसे भी उनके रिटायरमेंन्ट में भी तो कुछ ही साल बाकी थे, सो विभा ने भी कई कम्पनियों में नौकरी ढूंढना शुरू कर दिया।

पिताजी का दबाव बढते देखकर रवि ने बिजिनेस मैनेजमेंन्ट की पढाई के लिये अमरीका जाने की इच्छा जाहिर कर दी। सुझाव पर सोच विचार शुरू हो गया, लेकिन इकलौता लड़का कैसे घर से बाहर, परदेस में अकेला भेज दें। रोजाना इसी उधेड़बुन में बात शुरू होती और बिना किसी नतीजे के पहुँच कर खत्म हो जाती। रवि ने मन ही मन ठान ली थी कि अपने फैमिली के बिजिनेस में तो हाथ नही बँटायेगा।

ना रवि और ना ही कभी विभा ने एक दूसरे के बारे में सीरियसली सोचा था। लेकिन दिल के किसी कोने में दोनों को एक दूसरे के प्रति चाहत जरूर थी। यह बात दोनों जानते भी थे, लेकिन दोनों ही चाहते थे कि पहल दूसरी तरफ से हो।

उधर विभा को एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में अच्छी नौकरी मिल गयी। यूनीवर्सिटी में अव्वल आने के कारण उसे वरियता मिली था। काम ठीकठाक था लेकिन बड़ी कम्पनी होने के कारण तनख्वाह काफी अच्छी था। उसने घर के खर्चों में हाथ बंटाना शुरु कर दिया था। जिन्दगी व्यवस्थित ढंग से चल रही थी, सब कुछ अच्छा चल रहा था पर होनी को शायद कुछ और ही मन्जूर था। विभा के पिताजी की सहसा एक सड़क दुर्घटना में अकाल मृत्यु हो गयी। विभा के परिवार पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा, घर की सारी ज़िम्मेदारीयां अब विभा के कन्धों पर आ गयी। ऐसे में रवि के परिवार ने विभा के परिवार का काफी साथ दिया, रवि और विभा भी काफी करीब आ गये, दोनों के बीच में प्यार का बीज तो पहले ही पड़ चुका था, अब बस इकरार की देर थी। दोनों एक दूसरे के करीब आते गये और साथ जीने मरने की कसमें तक खा ली। लेकिन विभा पर अब पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी थी, तो कोई भी कदम काफी सोच विचार करने के बाद ही उठाने का फैसला हुआ।

इधर दिन गुजरते गये...आखिरकार वो दिन भी आया जिस दिन का रवि को इन्तजार था...अमरीका के एक नामी गिरामी बिजिनेस स्कूल में रवि को दाखिला मिल गया था, अगले महीने ही अमरीका पहुँचना था...यह एक ऐसा अवसर था जिसके लिये लोग लाख एड़ियां रगड़ते है। रवि के घरवाले सोच में पड़ गये कि अमरीका भेजे या ना भेजे...उधर रवि और विभा भी सोच विचार में थे कि क्या करें।

[अगला अध्याय: लेखक ~ अतुल अरोरा]

4 टिप्‍पणियां:

अनूप शुक्ल ने कहा…

नायक का लड़का आठ साल का हो गया.दो चार साल इधर-उधर रख को.दस-बारह साल का 'कच्चा चिट्ठा' लिखना है अगले लेखक को.बकिया कहानी तो शुरु हो ही गयी चकाचक.पर नायक-नायिका बड़े नासमझ हैं कि मां-बाप उनको बहू-दामाद बनाने की
सोच रहे हैं पर उनको खबर ही नहीं है.ये होता है सारिका (पत्रिका) नुमा प्यार.खूबसूरती के बिम्ब( खिलखिलाता हुआ चेहरा, वो झील सी गहरी आंखे, सुराहीदार गर्दन, आंखों में शरारत, होंठ जैसे अभी मुस्करा देंगे)बहुत घिसे पिटे हैं नायिका के.बकिया
अमेरिकी सुपरमार्केट वाले बतायें.

Jitendra Chaudhary ने कहा…

चलो एक बन्दे ने तो प्रतिक्रिया दी. बाकी लोग तो हाथ पर हाथ धर कर यूँ बैठे है जैसे प्रतिक्रिया लिखने मे चवन्नी खर्चा हो रही हो

हम तो समझे थे, बाकी लोगो को या तो कहानी अच्छी नही लगी, या ऊपर से निकल गयी या इतनी अच्छी लगी की प्रतिक्रिया लिखने के लिये सोचना पड़ रहा है.

देखिये भाई, हम ना तो कहानीकार है, और ना ही कहानीचोर , जो दिल और दिमाग ने सोचा, कागज पर उतार दिया.....अब धीरे धीरे इम्प्रूवमेन्ट आयेगा.....अभी तो शुरुवात हुई है, आगे आगे देखिये होता है क्या.

बेनामी ने कहा…

grrrrrreat. Its interesting to see writers challanging themselves. Story turned out very well.

बेनामी ने कहा…

शुरुवात तो हुई । शुरुवात क॓ तौर बढिया है ।