सोमवार, सितंबर 17, 2007

कारे कजरारे: अध्याय 2: नई उड़ान

शशि सिंह द्वारा लिखित पिछले भाग से आगे...लेखिकाः मीनाक्षीदुबई निवासी मीनाक्षी की रुचि गद्य कविता दोनों में ही हैउनकी रचनायें उनके चिट्ठे "प्रेम ही सत्य है" पर पढ़ सकते हैं

रंजना चाय लेकर लैब में पहुँचीं तो देखा पति कुमार अपनी कुर्सी पर ही लुढ़क गए थे। दिन-रात अपनी लैब में शोध करते-करते कुमार खाना-पीना-सोना सब भूल गए थे। "कुमार, चायऽऽऽ", रंजना के चिल्लाने पर भी वे उठे नहीं, नींद में कुछ बुदबुदा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि वे कोई भयानक सपना देख रहे हैं। अनमयस्क रहते ही वे अचानक चिल्ला उठे, "स्वाति, स्वाति, मेरी बच्ची, हे भगवान मैंने क्या कर डाला।" रंजना डर गई और ज़ोर ज़ोर से कुमार को झंझोड़ने लगी। कुमार उठ तो गए पर वे तो ज्यों यथार्थ में जी ही नहीं रहे थे। फटी-फटी आँखों से कभी वे रंजना को देखते तो कभी अपने आस पास, कुछ देर में कुमार ने घबरा कर पूछा, "स्वाति, स्वाति कहाँ हैं?"

"कुमार, स्वाति तो अपने कमरे में ही बैठी है, और कहाँ जायेगी? उसे बुलाना है?"

पर ये सब अनसुना कर कुमार सरपट अपनी बेटी के कमरे की ओर दौड़ पड़े। रंजना पीछे से चिल्ला कर बोली, "क्या हुआ आपको? क्या कोई सपना देख लिया। कुछ कहिए भी, अरे संभल कर चलिए।" कुमार बदहवासी में बीटिया के कमरे में गये तो देखा कि स्वाति अपने बिस्तर पर बैठी टीवी के रीमोट से चैनल बदलती अपने मन में उठे तूफ़ान को रोकने की कोशिश कर रही थी। देखा वही प्यारी सी साँवली-सलोनी उनकी लाड़ली बिटिया अपने पापा से नाराज़ होकर बैठी है। उसका नाराज़ होना सच भी है, क्यों न हो नाराज़?

सब अनसुना कर कुमार सरपट अपनी बेटी के कमरे की ओर दौड़ पड़े। रंजना पीछे से चिल्ला कर बोली, "क्या हुआ आपको?"
कुमार और रंजना चाहते हैं कि शोध का हिस्सा बनकर स्वाति अपना रंग बदल कर अपना जीवन ही नहीं, बल्कि उनका जीवन भी सफल कर दे और खुशी-खुशी शादी करके अपने घर चली जाए। स्वाति का कुमार से नाराज़ होना स्वाभाविक ही था, उसे अपने पापा से कतई आशा नहीं थी कि वे ऐसे शोध-कार्य में अपना समय बरबाद करेंगें जो रंग-भेद पर टिका होगा। आज के युग में भी अगर लोग रंग-भेद करते हैं तो ऐसे जाहिल लोगों से कोई सम्बन्ध ही नहीं रखना चाहिए।

कुमार बेटी को गुस्से में देखकर बिना कुछ कहे नीचे ड्राइंग-रूम में आ गऐ, जहाँ रंजना दुबारा नई चाय बना रही थी। दोनो ने एक-दूसरे को देखा, आँखों ही आँखों में एक-दूसरे की बात समझ कर चाय की चुस्कियाँ लेने लगे। शायद मन ही मन दोनों ने निश्चय कर लिया कि अब इस बारे में कोई चर्चा नहीं की जाएगी। कुमार ने जैसे कुछ सोच लिया और मुस्करा उठे तो रंजना ने उनकी तरफ देखा। कुमार रंजना से बोले, "स्वाति के इक्कीसवें जन्मदिन पर मैं उसे ऐसा तोहफ दूँगा जिसे पाकर स्वाति खुशी से झूम उठेगी।''

"मुझे भी कुछ पता चले, बताइए तो"

रंजना के लाख पूछने पर भी कुमार कुछ न बोले और उठ कर अपनी लैब में चले गऐ।

रिटायर्डमेंट के बाद घर में लैब खोलने का एक मकसद जो था आज वह सुबह देखे भयानक सपने के साथ ही खत्म हो गया। कई बार स्वाति ने कुमार से इस बारे में बात करनी चाही लेकिन हमेशा टाल दिया या बात बदल दी। आज उन्हें स्वाति की सारी बातें याद आ रहीं थीं। कुमार जानते थे कि स्वाति युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में मानव-शास्त्र के प्राध्यापक पेरा से प्रभावित होकर मानव के अलग-अलग रंगों के बारे में शोध करना चाहती है। भूमध्य रेखा के नज़दीकी देशों के लोगों का रंग साँवला या काला होता है और रेखा से दूर के देशों के लोगों का रंग साफ होता है लेकिन ऐसा क्यों होता है? ऐसा होने का क्या कारण है? उत्पत्ति का मूल कारण क्या है? अभी कई प्रश्नों के उत्तर पाना बाकी है। भूमध्य-रेखा से दूर रहने वाले लोगों के साफ रंग होने में कितने जीन्ज़ शामिल हैं? अणु कोशिका में परिवर्तन का मूल कारण क्या है? मनुष्य की त्वचा, बालों और आँखों के रंग में आनुवांशिक सम्बन्ध क्या हैं?

कुमार ने निश्चय कर लिया कि अब से वे अपनी बेटी के शोध-कार्य में उसकी मदद करेंगे। बेटी के सपने को पूरा करना ही उनका सपना बन गया। दो दिन बाद स्वाति का जन्मदिन था, उन्होंने स्वाति के सभी मित्रों को बुलाकर गेस्ट हाउस में चुपके-चुपके पार्टी की सभी तैयारियाँ करनी शुरू कर दीं। उधर स्वाति हैरान थी कि मम्मी पापा कोई नाराज़गी या दुख न दिखा कर स्वाभाविक व्यवहार कर रहे थे। पापा उसके कमरे आए पर बिना बात किए चले गए, अन्दर ही अन्दर वह अपने किए पर पछता रही थी कि उसने पापा को उदास और दुखी कर दिया। आज तक उसने सिर झुकाए आदर्श बेटी की तरह मम्मी पापा का कहना माना था।

स्वाति उठ कर ड्रैसिंग टेबल के सामने खड़ी हो गई, अपने साँवले चेहरे पर नज़र डाली, जिसे कुदरत ने बहुत सुन्दर तराशा था। आज भी उसे याद है कि कनाडा से जब पीटर पहली बार अपनी छुट्टियाँ बिताने भारत आया था तो किस तरह से आँखों ही आँखों में उसकी खूबसूरत आँखों की तारीफ़ करता और जब कोई आसपास नहीं होता तो उसे 'हेइ कॉफी' कह कर पुकारता तो स्वाति शर्म से लाल हो जाती, समझ न पाती कि क्या करे। दुबारा से उसने पीटर का खत उठाया और पढ़ना शुरु किया। हर बार की तरह इस बार भी पीटर ने लिखा था, "'हेइ कॉफी, कब शोध करके बताओगी कि मुझे कॉफी का रंग कैसे मिलेगा?"

पीटर स्वाति का बचपन का दोस्त था, जो स्कूली पढ़ाई करके आगे की पढ़ाई के लिए कनाडा चला गया। सोच रही थी कि किसी को कोई फिक्र ही नहीं कि उसके मन में क्या चल रहा है। मम्मी की सोच तो बस मेरी शादी पर ही रुक गई है। पापा तो मेरी बात समझ जाते थे लेकिन आजकल उन्हें भी क्या हो गया है। क्यों पापा छोटी सोच के लोगों के लिए अपना समय बरबाद कर रहे हैं, कैसे कहे कि अभी वह शादी के बारे में सोच ही नहीं रही है, उसका तो कुछ और ही मकसद है। क्या बेटियाँ जन्मीं तो बस घर-गृहस्थी चलाने का काम ही रह गया है उनके लिए, अगर ऐसा है तो क्यों उन्हें ऊँचीं शिक्षा दी जाती है, बस घर चलाने भर के लिए थोड़ी बहुत पढ़ाई करा दो और शादी कर दो।

स्वाति का कमरा ऐसी दिशा में है कि सूरज की पहली किरण खिड़की से सीधे उतर कर उसके चेहरे को प्यार से सहलाती उसे उठाती है, आज कुछ ज़्यादा ही चमक रहीं थीं शायद मेरा जन्मदिन मुबारक कहने को चमचमती सी मेरे कमरे में उतरीं हैं। स्वाति हैरान थी कि हमेशा की तरह आज मम्मी पापा ताज़े फूलों का गुलदस्ता लेकर उसके कमरे में नहीं खड़े थे, वह समझ गई कि इस बार दोनो ही उससे बहुत नाराज़ हैं। सोहनलाल अपने ठीक समय पर चाय की ट्रे रख कर चला गया। पूछने पर पता चला कि मम्मी बाज़ार गईं हैं और पापा सुबह से ही अपनी लैब में हैं। वह कुछ आहत सी होकर बैठी रह गई। पूरे घर में छाए सन्नाटे को चीरती फोन की घंटी बज उठी, शायद मोहिनी का फोन होगा, जो आजकल ऑस्ट्रेलिया में अपने पति के साथ रह रही है। आज भी सबसे पहले उसका ही फोन आया होगा लेकिन सोहनलाल फोन उठा कर लैब की ओर जाता दिखाई दिया। अनमनी सी होकर स्वाति जिम जाने की लिए तैयार होने लगी, जब भी उसका मन दुखी या उदास होता वह घंटो तक कसरत करती, घर आकर एक घंटा नहाने में बिताती, तब जाकर कहीं मन शान्त होता।

स्वाति दुखी तो थी ही लेकिन हैरान भी थी कि पहले कभी मम्मी पापा उसका जन्मदिन नहीं भूले तो अब क्या हुआ।
दोपहर का खाना स्वाति ने अपने कमरे में ही मँगवा लिया। पूछने पर पता चला कि पापा अभी भी लैब में हैं और माँ बाज़ार से आईं नहीं थी। स्वाति दुखी तो थी ही लेकिन हैरान भी थी कि पहले कभी मम्मी पापा उसका जन्मदिन नहीं भूले तो अब क्या हुआ। शाम के सात बजे सोहनलाल ने आकर कहा, "बिटिया रानी, अपने लिए एक कम्बल चाहिए। साहब के पास लैब में जाते हुए डर लगता है।" स्वाति ने चाबी देते हुए कहा, ''यह लो चाबी, कम्बल निकाल कर चाबी लौटा देना।" सोहनलाल माना नहीं, ज़िद करने लगा, "स्वाति बिटिया, आप ही निकाल कर दें, मैं अकेले नहीं जाऊँगा।" ''अच्छा बाबा, मैं ही चलती हूँ।'" यह कह कर स्वाति गेस्ट हाउस की चल पड़ी। अन्धेरा हो चला था, आज बगीचे के साथ जुड़े आँगन की भी लाइट नहीं जल रही थी।

गेस्ट हाउस के दरवाज़े पर पहुँचते चाबी ही लगाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी, अचानक दरवाज़ा खुला और मम्मी पापा मुस्कराते हुए हाथ में लाल गुलाबों के गुलदस्ते लेकर खड़े हैं, पीछे खड़े सभी लोग ज़ोर से चिल्लाए, " हैप्पी बर्थडे डीयर स्वाति" स्वाति एक पल के लिए कुछ समझ नहीं पाई।

"पापा मम्मी थैंक्यू सोऽऽऽऽ मच"

स्वाति की आँखों में खुशी के आँसू थे, आगे बढ़कर दोनो के गले लग गई। जन्मदिन की पार्टी को अचंभित दावत का नाम देना चाहिए। मित्रों ने आगे बढ़ कर बधाई दी लेकिन स्वाति पीटर को अपने सामने देखा तो देखती ही रह गई, उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ। पापा ने आगे बढ़कर कहा, "बेटी, अभी एक और आश्चर्य बाकि है, चलो पहले केक काटो।" केक काटते हुए स्वाति के हाथ काँप रहे थे, उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। केक कटते ही तालियों के साथ सभी जन्मदिन मुबारक का गीत गाने लगे। स्वाति ने मम्मी पापा को बारी बारी से केक खिलाया। पीटर ने मुस्करा कर अपना मुँह भी खोल दिया। शरमाते हुए स्वाति ने केक का एक टुकड़ा उसके मुँह में भी डाल दिया।

कुमार और रंजना बेटी को देखकर खुश हो रहे थे। बहुत दिनों बाद आज बेटी के चेहरे पर प्यारी मुस्कान देखकर उनकी आँखों में भी खुशी के आँसू आ गए। "स्वाति के जन्मदिन पर हम दोनो की तरफ़ से एक तोहफ़ा, मेरी लैब आज से स्वाति की लैब होगी। आज से मैं स्वाति के नए प्रोजेक्ट में उसके सहायक के रूप में काम करूँगा।" कुमार ने यह कहते हुए स्वाति को गले से लगा लिया। पापा की बात सुनकर स्वाति हक्की-बक्की खड़ी रह गई। उसे अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ। पीछे खड़ी रंजना भी धीरे से स्वाति के कान में फुसफुसाते हुए बोली, "आज से घर में शादी की चर्चा बिल्कुल बन्द, यह मेरा तोहफा है।"

कुछ देर के लिए स्वाति को लगा जैसे नन्हीं सी चिड़िया को पँख मिल गए हों। आकाश में दूर तक उड़ने की कल्पना से ही वह भाव-बिभोर हो उठी। उसके कारे कजरारे नैनों के कोर में खुशी से उपजे जल के नन्हे कतरे आनन्द के ताप से कब गायब हो गये उसे पता ही न चला। (समाप्त)

4 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

बेहद खूबसूरत अंत.पहला भाग जहां विज्ञान कथा की याद दिलाता था वहीं दूसरा भाग मानव कथा.इस सुंदर तरीके से कहानी को खत्म करने के लिये मीनाक्षी जी को धन्यवाद.

SHASHI SINGH ने कहा…

मीनाक्षीजी, सबसे पहिले तो इस कहानी को मुकम्मल करने के लिए ढेरों बधाई!

इस कहानी का इससे बेहतर समापन हो ही नहीं सकता था।

कारे-कजरारे मैंने 1999 में विद्यार्थी जीवन में लिखा था। तब मुझे लगा था कि एक दीवाने वैज्ञानिक को उसके किये की सज़ा मिल गई। मगर दिल नहीं मान रहा था... कहीं कुछ अधूरेपन का अहसास था। यहां तक कि उस समय जब दोस्तों को सुनाया तब उन्हें भी अधूरापन दिखा। मैं इस दंभ में था कि मैंने उस वैज्ञानिक को सज़ा दे दी जिसने कुदरत को बदलने की कोशिश की। साथ ही उस समाज को भी सबक सिखा दिया जिसने मिस्टर कुमार को गुस्ताख़ी के लिए प्रेरित किया। मगर मन में यह कचोट भी हमेशा रहा कि कहीं न कहीं मैं स्वाति के साथ बड़ा अन्याय कर गया। शायद यही कारण रहा होगा कि मैं स्वाति से आंख नहीं मिला पाया। जब भी कोशिश की इस कहानी को आगे बढ़ाने कि लगा जैसे स्वाति मुझे धिक्कार रही हो और हर बार नाकाम रहा।

मीनाक्षीजी, आज आपने मुझे मेरे अपराधबोध से मुक्त्ति दिला दी। मेरी स्वाति को एक नई ज़िन्दगी दे दी... उसे एक मकसद दे दिया। बहुत-बहुत धन्यवाद!

-शशि

मीनाक्षी ने कहा…

यह जानकर बहुत खुशी हुई कि आपको कहानी अच्छी लगी।
विज्ञान या प्रकृति में मानवीकरण चार चाँद लगा देता है,ऐसा मेरा विचार है।
शशि जी , आपकी स्वाति हज़ारों साँवली सलोनी लड़कियों में ज़िन्दा है जो आकाश की
बुलन्दियों को छूने की कोशिश में लगी हैं।

kavita verma ने कहा…

sundar kahani .kahani ke ant me rang ko nazar andaz kar jis tarah guno aur mahtvkansha ko man diya gaya vah sarahneey hai.