शुक्रवार, जनवरी 19, 2007

अपराध बोध : अध्याय 1 : भयानक रातें

रात का अंधेरा चारों ओर फैला हुआ था, रात के सन्नाटे को चीरती किसी उल्लू की आवाज कभी-कभी सुनायी पड़ रही थी। दूर दूर तक कुछ नजर नही आ रहा था, अशोक के कदम बड़ी तेजी से घर की तरफ बढ़ रहे थे। अचानक आसमान में बड़ी तेजी से बिजली कड़की थी, उसने नजर उठा के देखा। आसमान साफ नजर आ रहा था। किसी अंजान आशंका से उसका दिल काँप उठा था। वह चलना छोड़ अब दौड़ने लगा और तभी आसमान से आग के बड़े-बड़े गोले गिरने लगे। गिरते ही वे आसपास के पेड़ पौधों को अपनी गिरफ्त में लेने लगे। थोड़ी ही देर में अशोक आग की लपटों में घिरा हुआ था। उसको अपना अंत नजर आ रहा था, तभी सामने उसे एक बच्चा दिखायी दिया जो जलती हुई आग में भी नंगे पैर उसी की तरफ बड़ा चला आ रहा था। पास आकर बच्चे ने अपनी उंगली ऊपर उठायी, अशोक ने उसी दिशा में देखा तो एक जलते हुये पेड़ को अपने ऊपर गिरते देख कर उसकी चीख ही निकल गयी।

अशोक का सारा बदन पसीने से भीग गया था। लेकिन तभी जोर के सायरन की आवाज से उसकी नींद खुल गयी, शायद कोई पुलिस की जीप या एंबुलेंस थी, अशोक का सारा बदन पसीने से भीग गया था। उसने घड़ी की तरफ नजर दौड़ायी अभी सिर्फ रात के ३ ही बजे थे यानि सुबह होने में अभी भी कुछ वक्त बाकी था। थोड़ा पानी पीकर उसने एक सिगरेट सुलगायी और पास में पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। पिछले ३ महीनों से ऐसा ही हो रहा था। उसे अक्सर रात को ऐसे ही भयानक सपने आने लगे थे। आज उसने सोच लिया था कि किसी डाक्टर से इस बारे में बात करेगा और यूँ ही सोचते-सोचते उसकी आंख लग गयी।

आंखों में सूरज की रोशनी पड़ते ही अशोक उठ बैठा। घड़ी की तरफ नजर दौड़ायी, सुबह के ७ बजे थे। फटाफट बाथरूम की तरफ भागा वो, आज फिर स्कूल के लिये लेट नहीं होना चाहता था। आधे घंटे में ही तैयार होके वो स्कूल की तरफ निकल पड़ा। सेंट जेवियर के स्टाफ रूम में घुसते ही उसे सामने उर्वशी दिखायी दी। उसका चेहरा थोड़ा उतरा हुआ था। अशोक ने हैलो कह जब उस बारे में पूछा तो उर्वशी ने बताया कि रात को ठीक से सो नही पायी। अशोक और उर्वशी दोनों को ही सेंट जेवियर ज्वाइन किये अभी तीन महीने ही हुए थे। इससे पहले दोनों एक साथ शहर से थोड़ा दूर बने एक स्कूल आनंदमयी विधा स्कूल में पढ़ाते थे। शाम को साथ में चाय पीने का वायदा लेकर दोनों अपने-अपने क्लास रूम की ओर बढ़ गये।

स्कूल से छूटते ही दोनों बाहर निकल पास के ही एक रेस्तरां की ओर बढ़ गये। अशोक अपने ही किसी विचार में खोया चल रहा था कि उर्वशी की आवाज ने उसकी तंद्रा भंग की। तुमने कुछ कहा, अशोक ने पूछा, "हाँ वो देखो वह मालती ही है ना", उर्वशी बोली। अशोक ने नजर दौड़ायी, सामने मालती ही थी। किसी उम्रवार औरत के साथ खड़ी थी। दोनों उस ओर ही बढ़ गये। मालती को देख एक बारी दोनों काफी दंग रह गये। "मालती ये क्या तुम कुछ बीमार हो?", उसकी माँ ने जवाब दिया, "हाँ, बेटा पता नही इसको क्या हो गया है? रात को सोते-सोते चीखकर उठ जाती है। कई रातों तक सोती नही, कहती है डर लगता है। भयानक भयानक सपने आते हैं, डाक्टर को दिखाया उसने सोने वाली गोलियाँ दे दी, कुछ दिनों तक सब ठीक रहा फिर गोलियों ने भी असर बंद कर दिया। अभी किसी पीर की मज़ार से होकर आ रहे हैं, क्या पता शायद कोई बुरा साया हो!

मालती भी उन्हीं के साथ आनंदमयी विधा स्कूल में पढ़ाती थी। अशोक सोच रहा था कि वो ही अकेला नहीं जिसके साथ ऐसा हो रहा हो और उर्वशी भी सोच रही थी कि वो अकेली नही है जो रात को ठीक से सो नही पाती, कोई और भी है जिसे ऐसे भयानक सपने आते हैं।

[इस कथा का दूसरा भाग लिखा है मीनाक्षी ने। अवश्य पढ़ें।]

5 टिप्‍पणियां:

Atul Arora ने कहा…

अगर कोई और तैयार हो तो ठीक वरना मैं भी इच्छुक हूँ।

Unknown ने कहा…

मैं भी इच्छुक हूँ।

मीनाक्षी ने कहा…

तरुण जी, "भयानक रातें" कहानी न होकर कटु सत्य भी हो सकता है। भयानक रातों से मुक्ति पाना अपने ही हाथों में होता है , यह मैं अपने अनुभव से कह रही हूँ। अपराध बोध की अगली कड़ी का इन्ज़ार है।

कविता रावत ने कहा…

अच्छी कहानी .....सपनों का कोई और छोर नहीं होता ....
कब आये कब नहीं ... मन यदि शांत न हो तो डरावने सपने बहुत आते हैं ...ऐसा मेरा अनुभव है ...

कविता रावत ने कहा…

अच्छी कहानी .....सपनों का कोई और छोर नहीं होता ....
कब आये कब नहीं ... मन यदि शांत न हो तो डरावने सपने बहुत आते हैं ...ऐसा मेरा अनुभव है ...